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2019 में भाजपा हारेगी, पर विपक्ष देगा अल्पजीवी सरकार!

July 12, 2018
in खबरें, राजनीति
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2019 में भाजपा हारेगी, पर विपक्ष देगा अल्पजीवी सरकार!
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अखिलेश :

इसमें शक नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का इकबाल आज भी बुलंद है और भाजपा उनके इशारे पर नाच रही है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी मोदी के साथ है और संघ को भी लग रहा है कि मोदी के कमजोर होते ही भाजपा ताश के पत्तों की तरह ढह जाएगी, दरक जाएगी। और, एक बार यह दरक गई, तो फिर सत्ता पर काबिज होना आसान नहीं। ये बातें इसलिए कही जा रही हैं कि 2014 में जिस भाजपा को 31 फीसदी लोगों ने वोट दिया था, अगले चुनाव में वह मत प्रतिशत कम होने वाला है। जिन लोगों ने वोट दिया था, उनमें से बहुतों की सोच बदली है और जिन लोगों ने हिंदुत्व के नाम पर वोट दिया था, उन्हें भी भाजपा के खेल का पता चल गया है और सबसे अंत में जिस जातीय समीकरण की वजह से भाजपा को जीत मिली थी, अब उस जातीय समीकरण में सेंध लगती दिख रही है। जाहिर है, भाजपा का वोट बैंक कम होगा।

बता दें कि पिछले 2014 के लोकसभा चुनाव में 31 फीसदी मतदाताओं ने भाजपा को वोट दिया था। बाकी मतदाता विभिन्न पार्टियों में बंट गए थे। मतदाताओं का यह विभाजन भाजपा के लिए महाऔषधि साबित हुआ। भाजपा की भारी जीत हुई और कांग्रेस समेत विपक्ष जमींदोज हो गई। कुछ ही राज्य ऐसे बचे, जहां क्षेत्रीय पार्टियों ने अपनी धमक बनाए रखी, मोदी लहर को रोक कर भाजपा को चुनौती भी दी। जिन राज्यों में मोदी की लहर नहीं चल पाई, आज भी उन राज्यों की हालत जस-की-तस है, भाजपा को वहां कुछ बड़ा लाभ मिलता नहीं दिख रहा। कह सकते हैं कि बंगाल में संभवतः भाजपा इस बार कुछ नया कर जाए, वरना जितनी सीटें भाजपा को पहले मिली थीं, उसमें भारी कमी आने की संभावना दिख रही है। एक बात और, भाजपा की मानें तो जिन 31 फीसदी मतदाताओं ने भाजपा को सपोर्ट किया था, भाजपा इन्हें राष्ट्रवादी कहने से बाज नहीं आती है, जबकि खेल कुछ और ही था। उधर, बाकी के 69 फीसदी मतदाताओं को भाजपा अवसरवादी मानती है। भाजपा के लोग यही कहते देखे जाते हैं। लेकिन, भाजपा की यह सोच भी ठीक नहीं है, जिसका बुरा प्रभाव भी अगले चुनाव पर पड़ने वाला है।

एक बात और। नरेंद्र मोदी और अमित शाह का एकमात्र एजेंडा हिंदू वोटबैंक का ध्रुवीकरण करना है। दोनों जानते हैं कि भारत में जितनी जातियां और वर्ग हैं, सबकी अपनी परेशानी है और सबके अपने खेल भी हैं। भाजपा इसीलिए सभी को हिंदू बनाकर वोट लेना चाहते हैं। जबकि, असलियत तो यह है कि हिंदू कहलाने वाले बहुत सारे वर्ग सवर्ण हिंदुओं के पाखंड से आहत हैं और परेशान भी। वे अब अपनी अलग पहचान बनाने को तैयार हैं और बना भी रहे हैं। देश की वर्तमान राजनीति को गौर से देखें, तो साफ है कि आप हिंदुत्व की बहुसंख्यक राजनीति का विरोध कर सकते हैं और किसी भी तरह की पार्टी के मतदाता हो सकते हैं। आप वामपंथियों, समाजवादियों, जाति-आधारित दलों, क्षेत्रीय पार्टियों, निर्दलीयों, भाषायी दलों और भारत भर के किसी भी तरह के राजनीतिक संगठन का समर्थन कर सकते हैं। लेकिन अगर आप हिंदुत्व का समर्थन करते हैं, तो आपके लिए सिर्फ एक ही पार्टी है, और वह है भाजपा। यही भाजपा की ताकत है और इसी ताकत को आगे विस्तार देने का प्रयास भी वह कर रही है। लेकिन, अब शायद ही ऐसा हो सके।

एक अहम बात और… सवाल है कि अगले चुनाव में बाजी किसे मिलेगी? कह सकते हैं कि 2014 के नरेंद्र मोदी और 2018 के नरेंद्र मोदी में क्या जमीन-आसमान का अंतर नहीं आ गया है? मोदी की सारी कमजोरियों और विफलता का खामियाजा क्या भाजपा के मुख्यमंत्रियों को नहीं भुगतना पड़ेगा? मोदी का जैसा तौर-तरीका है, उसके आगे कोई भी भाजपाई मुख्यमंत्री अपने-अपने राज्य के चुनावी-रथ का महारथी नहीं बन सकता। ऐसे हालात विपक्ष के लिए बहुत फायदेमंद हो सकते हैं। इसीलिए उन्हें लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करवाने पर तुरंत राजी हो जाना चाहिए। लेकिन, आज विपक्ष की हालत खस्ता है। विपक्ष में कोई ऐसा बड़ा चेहरा नहीं दिख रहा, जिसकी आवाज को देश सुन सके और यकीं कर सके। यही विपक्ष की बड़ी कमजोरी है। फिर आगामी चुनाव में मोदी को हारने के लिए विपक्ष के पास न कोई बड़ा एजेंडा है और न ही देश को आगे बढ़ाने के लिए कोई योजना। वैसे, योजना तो मोदी सरकार के पास भी नहीं है। जो दिख रहा है और जो चार साल से हो रहा है, उससे देश का भला तो संभव नहीं हो सका। विपक्ष के पास एकता बनाए रखने का एक मंत्र जरूर है। पिछले महीने इस मंत्र को साधा गया, तो परिणाम अच्छे निकले। यह परिणाम भविष्य को दर्शाते हैं। भाजपा इस परिणाम को आज तक पचा नहीं पाई है। वह घबराई हुई है। तय है कि विपक्ष की एकता चुनाव के बाद भी बनती दिखती है, तो भाजपा को अगले चुनाव में 60 से 70 सीटों की हानि होती दिख रही है। विपक्ष को यही चाहिए और जो उसे मिल सकता है। कर्नाटक, गुजरात की कहानी को गौर से देखें, तो बहुत सारी बातें सामने दिखने लगती हैं। याद रहे कर्नाटक में अगर कांग्रेस और जेडीएस साथ-साथ लड़ती, तो भाजपा का नामोनिशान खत्म हो जाता।

यह तो साफ-साफ दिखाई पड़ रहा है कि अगले चुनाव में भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिलना अत्यंत कठिन है। इसके अलावा अभी जो पार्टियां उसके साथ गठबंधन में हैं, वे भी अपना नया ठिकाना तलाशने में जुटी हुई हैं। शिवसेना और तेलुगुदेशम ने तो तलाक की घोषणा कर रखी है। नीतीश का भी कुछ भरोसा नहीं। रामविलास पासवान, ओमप्रकाश राजभर और अकाली दल आदि भी 2019 तक भाजपा के साथ रहेंगे या नहीं, कुछ पता नहीं। गठबंधनों में शामिल होने वाले छोटे-मोटे दल सिर्फ सत्ता-सुख से प्रेरित होते हैं। यदि उन्हें मोदी की कुर्सी हिलती दिखी, तो वे विपक्ष के खेमे में अपनी जगह तलाशने में जुट जाएंगे। ऐसी हालत में भाजपा अल्पमत में आ गई, तो उसके नेतृत्व का सवाल एकदम प्रखर हो जाएगा। नेतृत्व-परिवर्तन का सवाल उठेगा। यह संभव है कि उस समय भाजपा के नए नेता के साथ कई दल दुबारा एकजुट होना चाहें और वह फिर से सत्तारूढ़ हो सके।

इसमें संदेह नहीं कि भाजपा के अल्पमत में जाते ही विपक्ष का गठबंधन अपनी सरकार बनाने में जी-जान लगा देगा। विपक्ष के सामने उस समय और आज भी सबसे बड़ी समस्या नेतृत्व की है। इसमें शक नहीं कि आज भी कांग्रेस, अपने सर्वाधिक अधःपतन के जमाने में भी एक अखिल भारतीय पार्टी है। देश के लगभग हर जिले में उसके कार्यकर्ता मौजूद हैं, लेकिन उसके पास कोई सर्वमान्य नेता नहीं है। राहुल गांधी पार्टी अध्यक्ष हैं। उन्होंने अपने आप को अभी से प्रधानमंत्री का उम्मीदवार भी घोषित कर रखा है। यदि वे इसी टेक पर अड़े रहते हैं, तो अन्य दल कांग्रेस के साथ संयुक्त मोर्चा नहीं बनाएंगे। कांग्रेस की स्थिति सारे देश में वैसी ही हो सकती है, जैसे उत्तर प्रदेश में हुई है। यदि राहुल अपनी मां के नक्शे-कदम पर चले और प्रधानमंत्री पद की इच्छा भी न करें, तो देश में एक जानदार दूसरा मोर्चा खड़ा किया जा सकता है। विपक्ष का प्रधानमंत्री कौन होगा, इसका फैसला चुनाव के बाद भी हो सकता है। 1977 में भी यही हुआ था। हालांकि, तमाम क्षेत्रीय पार्टियों के भीतर भी कई तरह की परेशानियां हैं, लेकिन किसी भी सूरत में ये एक होकर सरकार बनाने का खेल जारी रखती हैं, तो विपक्ष की साझा सरकार बन सकती है। लेकिन यह भी सुनिश्चित है कि वह सरकार 1977 की मोरारजी और चरण सिंह की सरकारों की तरह, 1989 की विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर की सरकारों की तरह और 1996 में एचडी देवेगौड़ा और आईके गुजराल की सरकारों की तरह अल्पजीवी होगी और आपसी खींचतान के कारण उसकी जान हमेशा अधर में लटकी रहेगी।

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