सुभाष चंद्र:
24 अकबर रोड, नई दिल्ली। पहले की तरह यहां अब शोरगुल नहीं होता। न ही सफेद कुर्ता-पायजामा वालों की आवाजाही होती है। हां, इतना जरूर है कि हजारों लोगों की जगह सैकड़ों लोगों की आवाजाही यह बताती है कि कुछ होने वाला है। चुनावी मोड में जब देश आता दिख रहा है, तो यहां भी हलचल पहले से अधिक तेज हो रही है। अमूमन मां-बाप के उत्तराधिकारी बनने की बात आती है, तो बेटा को ही बनाया जाता है। लेकिन कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी की उत्तराधिकारी बेटी बनेगी। राजनीतिक गलियारों में एक बार फिर चर्चा तेज हो गई है कि सोनिया गांधी के संसदीय क्षेत्र रायबरेली से इस बार प्रियंका गांधी लोकसभा चुनाव में ताल ठोकेंगी।
24 अकबर रोड पर सियासी कानाफूसी तो यही हो रही है कि सोनिया गांधी रायबरेली से इस्तीफा देंगी और उपचुनाव में उनकी बेटी प्रियंका गांधी वहां से ताल ठोंकेगी। इसके पीछे सोनिया गांधी के स्वास्थ्य कारणों का हवाला दिया जा रहा है। मां की उत्तराधिकारी बेटी !ऐसे में सहज सवाल उठता है कि क्या प्रियंका गांधी केवल रायबरेली सीट के लिए उत्तराधिकारी बनेंगी या फिर कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए। 2014 लोकसभा चुनाव में जिस प्रकार से कांग्रेस ने मुंह की खाईं, उसके बाद से पार्टी में राहुल गांधी के विरोध में आवाज बुलंद होने लगी। नारे भी लगाए गए थे – ‘कांग्रेस को बचाना है, प्रियंका को लाना है।’
दरअसल, प्रियंका गांधी का नाम भारतीय राजनीति में नया नहीं है। भले ही वह अब तक सक्रिय राजनीति में न आई हों और मां सोनिया और भाई राहुल के लिए चुनाव प्रचार तक ही खुद को सीमित कर रखा हो। लेकिन राजनीतिक जानकार उन्हें कांग्रेस और इस देश का अगला बड़ा नेता मानते हैं जिनमें इंदिरा गांधी जैसी नेतृत्व क्षमता है। याद कीजिए, लोकसभा चुनाव 2014 में प्रियंका गांधी ने खुद को अमेठी और रायबरेली संसदीय क्षेत्र में एक प्रचारक के रूप में ही सीमित कर रखा था। अपने मां राहुल गांधी की सीट अमेठी और मां की सीट रायबरेली। रायबरेली में तोलगभग हर गांव घूम चुकी हैं प्रियंका गांधी। पूरे संसदीय क्षेत्र के लोग प्रियंका गांधी को आंखों पर बिठाना चाहते हैं। उसी समय कांग्रेस के संचार विभाग के प्रभारी रणदीप सुरजेवाला ने साफ किया था कि प्रियंका रायबरेली और अमेठी में एक बेटी और बहन के नाते सक्रिय और निर्णायक भूमिका निभा रही हैं औरनिभाती रहेंगी।
‘मइया अब रहती बीमार, भइया पर बढ़ गया भार, बहन अब तुम ही करो बेड़ा पार’ इलाहाबाद के कांग्रेस कार्यकर्ता अगर ऐसा पोस्टर लगाते, तो किसी की हिम्मत नहीं होती, उन्हें पार्टी से निकालने की। महंगाई, भ्रष्टाचार और कुशासन के आरोपों से घिरी कांग्रेस एक बार फिर से नेहरू-गांधी परिवार के तुरुप के पत्ते की ओर देख रही है। सोनिया और राहुल के बूते पिछले दस सालों से केंद्र और कई राज्यों में सत्तासुख भोगकर कांग्रेसियों ने पार्टी को एक बार फिर से संकट में फंसा दिया है। इस संकट से उबारने के लिए प्रियंका गांधी की ओर कांग्रेसी टकटकी लगाए बैठे हैं… गौर करने योग्य यह भी है कि 1999 के चुनाव के वक्त एक साक्षात्कार में प्रियंका ने यह साफ कर दिया था कि वह राजनीति में नहीं आएंगी, लेकिन देश और जनता की सेवा करती रहेंगी। लेकिन प्रियंका को लेकर कांग्रेस के भीतर और बाहर राजनीतिक प्रपंच जारी है।
कांग्रेस के भीतर इस बात को लेकर मंथन जारी है कि आखिर कैसे कांग्रेस की साख लौटे और कैसे फिर कांग्रेस की नेतृत्व वाली सरकार बने। मंथन इस बात पर भी हो रहा है कि राहुल गांधी को अध्यक्ष तो बना दिया गया, लेकिन आगामी लोकसभा चुनाव में इससे पार्टी को कितना लाभ मिलेगा? बहस इस बात पर भी हो रही है कि मोदी की आक्रामक राजनीति और आप जैसी पार्टी के उदय के बीच कांग्रेस अपनी राजनीति कैसे बचा पाए? कांग्रेस के भीतर मंथन इस बात को लेकर भी है कि चाटुकारिता और जड़विहीन नेताओं की फौज क्या कांग्रेस की राजनीति को अब और आगे बढ़ाने में कारगर है? और इन तमाम बहसों के बीच मूल बहस इस बात पर टिकी है कि आखिर कैसे राहुल की अगुवाई में पार्टी की नई तस्वीर सामने लाई जाए, ताकि जनता के बीच विश्वास जाग सके।
जनता के बीच इसी विश्वास को जगाने के क्रम में कांग्रेसियों की नजरें बार-बार उस प्रियंका गांधी की तरफ जा रही हैं, जो अब तक सक्रिय राजनीति करने से अपने को बचा रही हैं। कांग्रेस का एक बड़ा धड़ा प्रियंका को तुरुप का इक्का मान रहा है, जबकि कांग्रेस के माहिर खिलाड़ी अब कांग्रेस में कुछ बदलाव की संभावनाओंको भी टटोल रहे हैं।
प्रियंका गांधी अभी तक सक्रिय राजनीति में आने से बचती रही हैं, लेकिन जब वह आधी अधूरी राजनीति करती ही हैं, तो इस बात की प्रबल संभावना बन सकती है कि वहदेश की राजनीति भी करें। सत्ता की बागडोर संभालने में वह सहयोगी बनें। लेकिन प्रियंका की एक दिक्कत भी है कि अगर वह सीधे अपने भाई को मजबूत करने के साथ ही पार्टी को मजबूत करने के लिए सामने आती हैं, तो साफ है कि राहुल की राजनीति फीकी पड़ जाएगी और फिर राहुल पिटे मोहरे से ज्यादा कुछ नहीं रह जाएंगे। यही वजह है कि प्रियंका की राजनीतिक दांव खेलने से पहले कांग्रेस के रणनीतिकार बेहद पशोपेस में हैं।